सांगलिया धुणी (Sangliya Dhuni), राजस्थान के सीकर जिले में स्थित एक अत्यंत प्रसिद्ध और ऐतिहासिक तपोभूमि है। सांगलिया धूणी सीकर से जोधपुर सड़क मार्ग पर खूड़ व लोसल कस्बे के बीच में बामणी तलाई, जहाँ पर बाबा खींवादास स्नातकोतर (पी.जी.) महाविद्यालय संचालित है, यहाँ से 4 किमी. दक्षिण में सांगलिया ग्राम में स्थित है, सीकर जिले से लगभग 35 किमी. दूरी पर है। यह स्थान मुख्य रूप से महान संत बाबा खींवादास जी (Baba Khinwadas Ji) की तपोस्थली के रूप में जाना जाता है । यह स्थान न केवल शेखावाटी क्षेत्र में, बल्कि पूरे राजस्थान और आस-पास के राज्यों में लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।
📍 स्थान (Location)
सीकर से जोधपुर सड़क मार्ग पर खूड़ व लोसल कस्बे के बीच में बामणी तलाई यह स्थान सीकर-नागौर जिले की सीमा के बहुत निकट है, जिसके कारण कई लोग इसे नागौर के पास भी समझते हैं, लेकिन प्रशासनिक रूप से यह सीकर जिले का हिस्सा है।
📜 ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व
सांगलिया धूणी आज से लगभग 350 साल पहले सांगा बाबा (स्वांग) आये थे। उनके नाम से ही सांगलिया ग्राम का नाम पड़ा। लेकिन धूणी माता की स्थापना व यहाँ पर लोगों को चमत्कार दिखाने को कार्य सर्वप्रथम बाबा लकड़दासजी ने ही किया था।
सांगलिया धूणी पूरे भारतवर्ष में अपनी अलग ही पहचान बनाए हुए है। यहाँ पर कदम रखते ही मानसिक व शारीरिक रूप से टूटे लोग जो पूर्ण आस्था रखते हैं, यहाँ बहुत ही सुकून मिलता है। अपने आप में एक अलग ही अनुभूति होती है।
आश्रम के अन्दर धूणी माता लक्कड़ेश मंगलेश मंगलदासजी का बंगला जहाँ आरती होती है। इसमें 5 समाधियाँ हैं। मंगलदास जी, लकड़दास जी, दूलदास जी, मानदास जी की समाधियाँ स्थित हैं।
इसके पश्चिम की ओर बरामदे में दक्षिण दिशा से बाबा बंशीदास जी की समाधी व मूर्ति, भगतदास जी की समाधी व मूर्ति जिनको वर्तमान पीठाधीश्वर ओमदास जी महाराज ने सन् 2018 में स्थापना करवाई। मौजीदास जी महाराज की चरण पादुका, बाबा खींवादास जी महाराज की मूर्ति व समाधि तथा लादूदास जी महाराज की मूर्ति स्थापित है।
इनके नैनृत्य कोण में गुफा बनी हुई है जिसमे पीठाधीश्वर साधु बाबा तपस्या किया करते हैं। इसके उतर में कुम्भदास जी महाराज व शंकरदास जी महाराज की समाधियाँ हैं। पास में ही हरिदास जी महाराज व अघोरी बाबा की समाधी है।
आश्रम के पश्चिम में खाना बनाने के लिए रसोई भी है। जहाँ पर 24 घंटे चूल्हे चालू ही रहते हैं। इसके पास में ही मीठे पानी का कुँआ व ट्यूबवेल बनी हुई है।
यहाँ बाबा लकड़दास गौशाला बनी हुई है। जिसमें काफी गायें हैं व सांगलिया ग्रामवासियों व आस-पास के गाँवों के लोग बहुत अच्छा सहयोग कर रहे हैं।
- बाबा खींवादास जी: वे सर्वंगी पंथ के एक महान संत थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन मानव सेवा, गौ सेवा और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने में समर्पित कर दिया।
- अखंड धुणी: इस स्थान का नाम “धुणी” इसलिए है क्योंकि यहाँ एक अखंड धुणी (पवित्र अग्नि) प्रज्वलित है, जो बाबा खींवादास जी के समय से ही निरंतर जल रही है। श्रद्धालु इस धुणी की भभूत (राख) को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं और इसे बहुत पवित्र मानते हैं।
- यहाँ के महंत (मुख्य पुजारी) को “पीठाधीश्वर” कहा जाता है और वे बाबा खींवादास जी की गद्दी के उत्तराधिकारी होते हैं। वर्तमान में महंत श्री ओमदास जी महाराज यहाँ के पीठाधीश्वर हैं।
✨ धुणी स्थल की मुख्य विशेषताएं
सांगलिया धुणी सिर्फ एक मंदिर नहीं, बल्कि एक विशाल परिसर है जहाँ आध्यात्मिकता और सेवा का अनूठा संगम देखने को मिलता है।
- बाबा खींवादास जी का समाधि स्थल: यह परिसर का मुख्य आस्था केंद्र है, जहाँ बाबा की समाधि है।
- अखंड धुणी: समाधि स्थल के पास ही वह पवित्र स्थान है जहाँ अखंड अग्नि जलती रहती है।
- विशाल गौशाला: सांगलिया धुणी की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक यहाँ की विशाल गौशाला है। यहाँ हजारों गायों की सेवा की जाती है। गौ सेवा को यहाँ पूजा का ही एक रूप माना जाता है।
🙏 मान्यताएं और आस्था
लाखों लोग हर साल अपनी मनोकामनाएं लेकर सांगलिया धुणी आते हैं। यहाँ से जुड़ी कई मान्यताएं प्रचलित हैं:
- लकवा (Paralysis) का इलाज: यह स्थान विशेष रूप से लकवा (पक्षाघात) से पीड़ित रोगियों के लिए आस्था का केंद्र है। ऐसी गहरी मान्यता है कि यहाँ की पवित्र भभूत लगाने और परिक्रमा करने से लकवे जैसी गंभीर बीमारी में भी लाभ मिलता है।
- मानसिक शांति: लोग मानते हैं कि इस पवित्र परिसर में समय बिताने से अद्भुत मानसिक शांति का अनुभव होता है।
- मनोकामना पूर्ति: श्रद्धालु मानते हैं कि बाबा खींवादास जी के दरबार में मांगी गई हर सच्ची मुराद पूरी होती है।
मेले और आयोजन
- यहाँ हर महीने पूर्णिमा (Full Moon) को विशेष पूजा और मेला लगता है, जिसमें हजारों लोग शामिल होते हैं।
- भाद्रपद पूर्णिमा और माघ पूर्णिमा को यहाँ सबसे बड़े वार्षिक मेले आयोजित होते हैं, जो कई दिनों तक चलते हैं।
लक्कड़दास जी महाराज
लोक किंवदन्तियों व जनश्रुतियों के अनुसार सर्वप्रथम सांगलिया ग्राम में बाबा लकड़दासजी ने ही आज से लगभग 350 वर्षों पर इस स्थान पर आकर आसन लगाया था। ऐसा माना जा रहा है कि महाराज फतहपुर के सिकलीगर में पैदा हुए थे।
महाराज ने बाल्यकाल से ही घर छोड़ दिया व जगह-जगह साधुओं की संगत करते हुए पंजाब राज्य के बोहर स्थान पर पहुँचे। वहाँ पर कोई साधु 12 वर्ष तक मौन धारण कर पलक लगाए बैठे थे। महाराज ने उनको देखा तो वहीं खड़े हो गए। महाराज समाधीस्थ (योग) थे व सामने धूणा जग रहा है। महाराज ने अपनी आँखें खोली तो लक्कड़ स्वामी ने कहा, महाराज मुझे कुछ देवो।
साधु ने उनकी ओर देखा और धूणी में से अग्नि उठाकर बाबाजी को दे दी तो बाबा ने अपनी चादर में अपनी शक्ति के द्वारा ऐसे बाँध ली जैसे कोई प्रसाद लेता है। वहाँ से चलकर सीधे सांगलिया में आए व धूणी माता की स्थापना की जो आज तक लगातार ज्योति जग रही है।
बाबा लक्कड़दास जी से लोग डरते थे क्योंकि ये अघोरी थे। कुछ भी खाने-पीने से परहेज नहीं होता था। मगर दु:ख-दर्द वाले को दूर से ही कहकर ठीक कर देते थे।
लक्कड़दास जी के 7 शिष्य थे जो अलग-अलग स्थानों पर जाकर जन-जन की सेवा करते रहे।
संत शिरोमणि बाबा खींवादास जी का जीवन परिचय
बाबाजी का जन्म नागौर जिले की लाडनूं तहसील में ग्राम बिठुड़ा में भाद्रपद शुक्ल पक्ष पूर्णिमा संवत् 1996 सन् 1939 को खुमाराम व चौथी देवी (माता-पिता) के घर हुआ। आप एक देदीप्यमान, महान् भाग्यशाली, परमात्म स्वरूप के रूप में प्रकट हुए।
आपकी जितनी महिमा कही जाए उतनी की कम ही है। स्वयं भगवान अपने अवतार के रूप में प्रकट होकर खींव के नाम से अवतरित हुए। खुमाराम जी बीदस्या (बीदावत) शुरू से ही सांगलिया धूणी से जुड़े हुए थे तो पुत्र रत्न होने पर महाराज लादूदास को अपनी प्रिय वस्तु भेंट करना चाहते थे। कई बार विचार मंथन के बाद बाबा ‘ खींव ‘ जो बालक थे उनको ही महाराज के चरणों में भेंट कर दिया।
दर्शन कर प्रसन्न भए, साहेब सत बोहरंग।
खींवा कबहु न छोडि़ए, सतगुरु जी का संग॥
धन्य हो ऐसे माता-पिता, जिन्होंने अपने कलेजे के टुकड़े को साधु बाबा के चरणों में अर्पित कर जीवन सफल बना लिया। बाबा खींव शीतल मूर्ति, विद्वान, भजनों के रचयिता जिनको सरल तर्ज में गाया जा सकता है व स्वयं भी बहुत ही मधुर ऊँची राग में गाकर जन-जन को लाभ पहुँचाया व एक नई तर्ज देकर नाम अमर कर लिया। स्वामी जी के मुखारबिन्द से निकले एक-एक शब्द ही बेसकीमती थे। जिसने उनको समझा व अनुसरण कर लिया, उनके सभी मार्ग खुल गए।
योग युगत से साजिए, कर दिल अपना साफ।
सत्य साहेब का नाम है, जपिये अजपा जाप॥
जपिये अजपा जाप, आप में आप समावे।
तू तेरे को जाण, जीव मुक्ति पद पावे॥
जहां हंसा निर्भय रहो, सदा आनन्द अरोग।
खींवा सतगुरु देव से, मिला पूरब संयोग॥
महाराज श्री हर बात में मानव जाति व सम्पूर्ण विश्व बहृमाण्ड व प्राणी मात्र को एक ही सत्ता या ब्रह्मा के अंश मानकर समझाया करते थे। आज भी हर जगह जो उनके भक्त हैं उनके घर पर महाराज के भजनों की रिकॉर्डिंग मौजूद है व जनसाधारण की समझ में जल्द ही आ सकते हैं।
महाराज श्री ने अशिक्षा को दूर करने के लिए भजनों के माध्यम से व भजनों की व्याख्या में लोगो को समझाकर शिक्षित बनने के लिए प्रेरित किया व पाखण्डवाद, ढोंग, अन्धविश्वास को दूर भगाने में खूब योगदान किया। जिसने एक बार ही सत्संग सुनी वो अपने जीवन में कभी नहीं भूल सकता।
जागो भारत के नर नारी रे,
कुकर्मा ने छोड़, शिक्षा लेवो गुरांरी रे।
आपने सभी सम्प्रदाय के लोगों को आश्रय प्रदान किया व उनका सत्कार करके सर्वधर्म सम्प्रदाय का परिचय दिया। आपके मुखारबिन्द से-
हम सरभंगी, सबके संगी, मेट दिया झोड़ तमाम।
छुआछूत का भ्रम हटाया, कर दिया चक्का झाम॥
यदि इस आश्रम में सभी धर्म व सभी जातियों को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य किया जो कि भारतवर्ष में अन्यत्र नहीं मिल सकता।
महाराज श्री ने कॉलेज बनवाकर न केवल अपना नाम अमर किया बल्कि दूर-दराज इलाकों के गरीब परिवारों के बालकों की शिक्षा का इन्तजाम किया जिससे हजारों बालक/बालिकाएँ लाभान्वित होकर रोजगार के क्षेत्र में शामिल हुए हैं। कॉलेज के साथ-साथ छात्रावास व अनुसंधान केन्द्र भी बना हुआ है। स्वामी जी ने इतना ही नहीं बल्कि गरीब, असहाय लोगों को आर्थिक सहायता करके भी शादी-विवाह, रोग के ईलाज के लिए भी सहायता करते हैं।
आपकी देश सेवा, प्रेम, समाज सेवा, शिक्षा, भजन, वाणी तथा शिक्षा केन्द्र खोलने के कारण 24 दिसम्बर, 1998 को दिल्ली में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के द्वारा अम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। देश में साधुओं की या भगवाधारियों की एक कतार बना दी जाए तो सम्पूर्ण राजस्थान के चारों तरफ घेरा बन सकता है। मगर इतनी भीड़ में से राष्ट्रपति द्वारा एक साधु को सम्मानित करना अपने आप में गौरव की बात है।
अनेकानेक क्षेत्रों में कार्य करते हुए व मानवता की सेवा करते हुए जन्माष्टमी के दिन 12 अगस्त, 2001 को लाखों लोगों को रोते-बिलखते छोड़कर ब्रह्मलीन हो गए।
आप भले ही स्थूल रूप से इस दुनिया में न हो मगर भक्तों के दिलों में आज भी आप अपना स्थान बनाए हुए हैं।
सांगलपति महाराज हो, बाबा खींवादास।
अवतारी महापुरुष भये, सुमरे जिनके पास॥
पद पाया निर्वाण, मिटाय जाति कारणे।
पल-पल मदन की वीनती, थे आवो म्हाने तारणे॥
आपकी जन्मभूमि बिठुड़ा में दो आश्रम बने हुए हैं जिनमें मेघदास जी व प्रतापदास जी गद्दीपति के रूप में सेवाएँ दे रहे हैं।
🕉️ सांगलिया धुणी की स्थापना
घूमते-घूमते बाबा खींवादास जी वर्तमान सांगलिया गाँव के पास पहुँचे, जो उस समय एक बीहड़ जंगल और टीलों का क्षेत्र था। उन्हें यह स्थान तपस्या के लिए बहुत उपयुक्त लगा।
- अखंड धुणी: उन्होंने इसी स्थान पर रुककर घोर तपस्या की और अपने हाथों से एक “अखंड धुणी” (पवित्र अग्नि) प्रज्वलित की। यह वही पवित्र धुणी है जो पिछले 350 से अधिक वर्षों से सांगलिया धाम में निरंतर जल रही है।
- तपोभूमि: धीरे-धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैलने लगी। लोग अपनी समस्याएं लेकर उनके पास आने लगे और उनकी धुणी की भभूत (राख) से लोगों के कष्ट दूर होने लगे।
📜 प्रमुख शिक्षाएं और कार्य
बाबा खींवादास जी का जीवन केवल तपस्या तक सीमित नहीं था, वे एक महान समाज सुधारक भी थे।
- गौ सेवा: वे गौ माता के अनन्य सेवक थे। उन्होंने गौ सेवा को ईश्वर की सेवा के बराबर माना। आज भी सांगलिया धुणी में उनकी यह परंपरा जीवित है और वहाँ एक विशाल गौशाला है।
- मानव सेवा (सदाव्रत): उन्होंने “भूखे को भोजन” को सबसे बड़ा धर्म बताया। उन्होंने धुणी पर “सदाव्रत” (लंगर या निःशुल्क भोजनालय) शुरू किया, जो आज भी 24 घंटे चलता है।
- सामाजिक समरसता: दादू पंथ की परंपरा के अनुसार, उन्होंने जाति-पाति, ऊँच-नीच और किसी भी तरह के भेदभाव का घोर विरोध किया। उनकी धुणी के द्वार हर धर्म और हर वर्ग के लिए समान रूप से खुले थे।
खींवादास जी महाराज के शिष्य
- श्री श्री १००८ श्री भगतदास जी महाराज
महाराज का जन्म सीकर जिले की नीमकाथाना तहसील के पास पंचलंगी ग्राम में श्री मुखराम जी मेघवाल व श्रीमती नाथी देवी के घर हुआ। बाल्यकाल से ही आपकी प्रवृति साधु-सेवा में थी। अत: 14 वर्ष की उम्र में ही आप गृह त्याग कर सांगलिया धूणी आ गए।
आपके पिताजी का चण्डीगढ़ में अखाड़ा (कुश्ति-दंगल) था। महाराज शंकरदास जी एक बार वहाँ गए। उनके साथ यहाँ आकर आप रात-दिन एक करके साधुओं की सेवा की व बाबा खींवादास जी महाराज के परम शिष्य बन गए।
आपको पशुओं से भी बहुत ज्यादा लगाव था, जिसके कारण हमेशा गायों की सेवा किया करते थे। साथ ही साथ आपको भजन गायन का भी बहुत शौक था। सेवा भावी भावना के कारण महाराज श्री के रहते हुए धूणी माता पर आरती का पूरा जिम्मा आपने ही संभाल रखा था।
सन् 2001 अगस्त माह की 12 तारीख को बाबा खींवादास जी महाराज के समाधीस्थ होने के बाद आपको पीठाधीश्वर पद मिला। जिसका बखूबी से पालन करते हुए जनसेवा की व सभी भक्तजनों के दिलों में स्थान बना लिया।
आप 4 फरवरी, 2004 को बहृमलीन हो गए व 5 फरवरी, 2004 को समाधी दी गई। जिस पर वर्तमान पीठाधीश्वर बाबा ओमदास जी महाराज ने फरवरी 2018 में मूर्ति स्थापना कर चिरस्थाई यादगार बना दी है।
- श्री श्री १००८ श्री बंशीदास जी महाराज
स्वामी जी का जन्म खाटू श्यामजी व रींगस के बीच ग्राम लाम्पवा में श्री घासीराम जी बरवड़ व माता श्रीमती ग्यारसी देवी के घर 12 अक्टूबर, 1974 को हुआ।
बाल्यकाल ग्राम लाम्पवा में बीताकर लगभग 18 वर्ष की अल्पायु में ही बाबा खींव के चरणों में अपने मन को लगा दिया व पूर्ण समर्पण के भाव से सेवा की।
आपने कलाकारों, संगीत प्रेमियों, सत्संग प्रेमियों का आदर सत्कार कर मन को जीत लिया। दीन-दु:खियों, गरीब-असहाय लोगों की सेवा की। शुरू से ही आपने अपने कोकिल कंठ से गायकी करके प्रसिद्धि प्राप्त की व रात-दिन महाराज खींवादास के आदेशों की पालना की। बाबा खींव के दूसरे शिष्य के रूप में आपने फरवरी, 2004 में पीठाधीश्वर अखिल भारतीय सांगलिया धूणी को सुशोभित किया।
सांगलपति महाराज हो, सारण सबके काज।
बंशी निज अरजी करे, दु:ख मेटण महाराज॥
पीठाधीश्वर पद पर रहते हुए आपने लाखों लोगों के दु:ख दर्द को सुना व उनकी हर संभव सहायता की व अपने आशीर्वचनों द्वारा रोगों से मुक्ति दिलाकर जीवन को धन्य किया। आपके चेहरे का इतना तेज था कि कोई भी व्यक्ति आपसे नजर नहीं मिला सकता था व जो बात कह दी उसको कोई टाल नहीं सका। इतनी शक्ति गुरुदेव व धूणी माता से प्राप्त की।
बाबा बंशीदास जी महाराज जिन्होंने अपने औजपूर्ण वाणी के द्वारा दूसरे सम्प्रदायों के लोग व साधू जो सांगलिया वालों से दूरी बनाये रखते थे व ऐसा भी सुनने में आता था कि सांगलिया वालों को सत्संग का ज्ञान नहीं है। उन लोगों को बाबाजी ने अपनी मधुर वाणी के द्वारा भजनों के माध्यम से सांगलिया सम्प्रदाय को मानने के लिए मजबूर कर दिया।
महाराज श्री ने बाबा खींव की तरह ही अपने आशीर्वचनों के द्वारा रोग ग्रस्त व अन्य प्रकार की बाधाओं से ग्रसित लोगों को लाभान्वित कर जीवन को धन्य किया।
जिस असाध्य रोग को डॉक्टर ठीक नहीं कर सके, उनको बाबा खींव की तरह ही बंशीदास जी ने साध्य बनाकर जन-जन के दिलों में स्थान बना लिया।
महाराज श्री ने राजस्थान में ही नहीं अपितु राजस्थान के बाहर हरियाणा, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, आसाम तक जाकर अपनी वाणी व आशीर्वचनों के द्वारा लोगों को शारीरिक, आर्थिक व मानसिक रूप से धन्य किया।
सतगुरु के दरबार में, जाइये बारम्बार।
भूली वस्तु बतायदे, सतगुरु है दातार॥
महाराज जी ने कॉलेज के सौन्दर्यकरण में कोई कसर नहीं छोड़ी तथा बीचली बगीची के नाम से कॉलेज व बाबा लक्कड़दास आश्रम के बीचों बीच यात्रियों के ठहरने हेतु एक विशाल एवं भव्य आश्रम का निर्माण करवाया।
स्वामी जी द्वारा बनवाये गये कॉलेज को बाबा बंशीदास जी ने गुरु कृपा से स्नातकोतर का दर्जा दिलाया।
महाराज खींवादास जी के अन्य शिष्य– गणपतदास जी (मुकुंदगढ), प्रेमदास जी (तालछापर), कानदास जी (सीकर), साँवलदास जी (अड़कसर), सांवलदास जी (सुजानगढ़), बाबूदास जी।
बंशीदास जी महाराज के शिष्य
श्री श्री 108 श्री ओमदास जी महाराज
ओमदास जी महाराज का जन्म नागौर जिले की डीडवाना तहसील में बरड़वा ग्राम में 11.11.1991 को श्री नारायण राम मेहरड़ा जी व माता श्रीमती यशोदा देवी के घर हुआ।
कुण्डलियाँ
कार्तिक शुक्ल तिथि पंचम, दिनांक ग्यारह होय।
दो हजार अड़तालीस, विक्रम संवत् जोय॥
विक्रम संवत् जोय, माह नवम्बर दिन सोम।
जन्म भौम बरड़वा, नाम धरायो है ओम॥
सन् है उन्नीस सौ, वत्सर नब्बे और इक।
‘मदन’ जन्म आपका, उतम ज्यों माह कार्तिक॥
वत्सर-वर्ष
नब्बे और इक-91
छ: भाई-बहिनों में आप दूसरे नम्बर पर होने के कारण बचपन से छोटे बहिन-भाइयों से ज्यादा लाड़-प्यार मिला। मगर आपने अपना बाल्यकाल माता-पिता के साथ गाँव से बाहर बिताया। क्योंकि आपके पिताजी राजकीय सेवा में सेवा देने के कारण प्रारम्भिक शिक्षा मौलासर (नागौर) में सम्पन्न हुई। इसके बाद आपने सांगलिया, जोधपुर, बरड़वा, सुदरासन और बेरी में कक्षा 12 तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद कॉलेज शिक्षा बाबा खींवादास महाविद्यालय से स्नातक सन् 15-16 में प्रथम श्रेणी से उतीर्ण कर महाविद्यालय में नाम रोशन किया। बाल्यकाल से ही आपके विचार आपकी सेवा भावना को देखते हुए आपके पिताजी ने बाबा खींवादास जी महाराज के चरणों में समर्पित कर दिया। बाबा बंशीदास जी के प्रिय शिष्यों में आपका नाम सर्वोपरि है।
आपने प्रारम्भिक शिक्षा के बाद से सांगलिया धूणी में रहने लग गए जिसके कारण आपमें सेवा भावना, सत्संग प्रेम, दूर-दूर के लोगों से जानकारी होने लग गई। 2001 में बाबा बंशीदास जी महाराज के पीठाधीश्वर पद संभालने के बाद आपने पूर्ण समर्पण के साथ बाबाजी के साथ एक साये की तरह रहे। चाहे कहीं कार्यक्रम हो, सत्संग हो या आश्रम आपने हमेशा ही महाराज श्री के आदेश का पालन किया।
महाराज की अनुपस्थिति में भी आपने यहाँ पर आने वाले यात्रियों, आरती, खेती, पशुओं व अन्य सम्बन्धित कार्यों का प्रभार संभाल कर अपनी योग्यता का परिचय दिया। इतनी पूर्ण निष्ठा व सेवा भावना के कारण बंशीदास जी महाराज के परम शिष्य बन गए।
इसी सेवा भावना एवं योग्यता को देखते हुए सांगलिया ग्रामवासियों तथा सन्त महापुरुषों ने फरवरी 2017 में अखिल भारतीय सांगलिया धूणी को पीठाधीश्वर पद की जिम्मेदारी सौंपी गई।
सोरठा-
ओम सम ओमदास, पीठाधीश्वर पद पाय।
पूरण भयो प्रकाश, मौजां कर दी मदन सा॥
आप अखण्ड अपार, आप हो अन्तर्यामी।
सबका सरजनहार, आपणां ओमदासजी॥
बामनी तलाई से अड़कसर, जहाँ पर लाखों श्रद्धालुओं की भावना व सुविधा को देखते हुए तुरन्त सड़क बनवाई। जिसके लिए बहुत-बहुत साधुवाद।
सन् 2018 जून माह में स्नातकोतर महाविद्यालय में विज्ञान संकाय खुलवाकर शिक्षा के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान किया है।
बगीची का बरामदा जहाँ समाधियाँ हैं, पलस्तर तुड़वाकर कांच की मीनाकारी कार्य करवाया जो अपने आप में बेजोड़ नमूना है। इसके साथ-साथ लक्कड़दास जी, मंगलदास जी का बंगला जहाँ आरती होती है, उस पर भी सुन्दर कार्य करवा कर चार चाँद लगा दिए।
इसके साथ-साथ आपने बाहर की तरफ इमली वाले मैदान में ब्लॉक लगवाकर मैदान की सुन्दरता को बढ़ा दिया है, सभी यात्रियों के लिए आरामदायक स्थान बना दिया।
इसके साथ-साथ आपने दीन-दु:खियों की आवाज को सुनकर आपके आशीर्वचनों से भी बहुत सारे लोगों को ठीक कर दिलों में अपना स्थान बना लिया है।
मैं गुरु साहेब से प्रार्थना करता हूँ कि आपने लगभग 17-18 माह में ही इतने कार्य कर दिए जो साधारण व्यक्ति पूरी जिन्दगी में ही नहीं करता। इसी प्रकार हमारा ( भक्तजनों का ) जीवन सजाते संवारते रहें।
हाल ही में 29 व 31 जुलाई 2018 को नि:शुल्क नैत्र चिकित्सा शिविर लगवाकर सैकड़ों लोगों की रोशनी दिलवाई जो परोपकार का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
ओम को स्वरूप देख मेरे मन हर्ष भयो,
कृष्ण ही अवतार धर, सांगलिया में आयो है।
पूर्व के जन्मों का सार, सतपुरुषों के लागे लार,
गुरुजी को हाथ सिर पर धरायो है॥
बाबा बंशीदास जी के परम शिष्य ओमदास,
सेवा, शिक्षा, नशामुक्ति अभियान को चलायो है।
मदन है चरणों की धूल, रति भर मत जाजो भूल,
अनाथों के नाथ ‘ओम’ पीठाधीश पद पायो है॥
उनकी विरासत आज भी सांगलिया धुणी के पीठाधीश्वरों (महंतों) द्वारा आगे बढ़ाई जा रही है, जो गौ सेवा, मानव सेवा और सामाजिक समरसता के उनके मार्ग पर चल रहे हैं।
महंत श्री ओमदास जी महाराज का जीवन परिचय
अखिल भारतीय सांगलिया धूणी के पूर्व पीठाधीश्वर श्री श्री 1008 श्री बंशीदास जी महाराज के परम शिष्य श्री ओमदास जी महाराज ने पीठाधीश्वर पद संभालते ही महाराज के पदचिन्हों पर चलते हुए बाल विवाह, शराब, कन्या भ्रूण हत्या, सफाई अभियान, वृक्षारोपण, सामाजिक कुरीतियाँ, शिक्षा, पर्यावरण नीति तथा अध्यात्म सम्बन्धित विषयों पर अपने सुविचार प्रकट कर विभिन्न छन्दों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने का महान पूण्यार्थ का कार्य किया है।
📜 जीवन का मुख्य ध्येय और कार्य
महंत श्री ओमदास जी महाराज का पूरा जीवन बाबा खींवादास जी के दिखाए मार्ग पर चलते हुए सेवा के तीन स्तंभों पर आधारित है:
1. गौ सेवा (Gau Seva)
महाराज श्री का जीवन गौ सेवा को समर्पित है। उनके मार्गदर्शन में सांगलिया धुणी की गौशाला राजस्थान की सबसे बड़ी और सुव्यवस्थित गौशालाओं में से एक है। यहाँ हजारों की संख्या में गायों (विशेषकर बीमार, असहाय और वृद्ध) की सेवा की जाती है। वे गौ माता को साक्षात भगवती का रूप मानते हैं।
2. मानव सेवा (Manav Seva)
बाबा खींवादास जी द्वारा शुरू किए गए “सदाव्रत” (अखंड लंगर) को महाराज श्री ने और भी वृहद रूप दिया है। उनके सानिध्य में धुणी पर 24 घंटे, सातों दिन, बिना किसी भेदभाव के हर आने वाले श्रद्धालु और गरीब के लिए निःशुल्क भोजन (प्रसाद) की व्यवस्था चलती है।
3. धर्म एवं समाज सेवा (Dharma and Social Service)
वे दादू पंथ के “निर्गुण भक्ति” और “सामाजिक समरसता” के सिद्धांत के सच्चे प्रचारक हैं। वे जाति-पाति, ऊँच-नीच के भेदभाव को मिटाने का उपदेश देते हैं।
✨ प्रमुख योगदान
श्री ओमदास जी महाराज केवल एक संत ही नहीं, बल्कि एक महान कर्मयोगी और दूरदृष्टा भी हैं।
- आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ वेदों और शास्त्रों का ज्ञान निःशुल्क दिया जाता है।
- रोगियों की सेवा: धुणी में लकवा (Paralysis) और अन्य गंभीर रोगों से पीड़ित जो लोग आस्था लेकर आते हैं, उनके रहने और भोजन की निःशुल्क व्यवस्था का प्रबंधन महाराज श्री की देखरेख में होता है।
- पर्यावरण संरक्षण: वे वृक्षारोपण (Plantation) और जल संरक्षण के लिए भी लोगों को प्रेरित करते हैं।
- नशा मुक्ति अभियान: वे अपने प्रवचनों के माध्यम से युवाओं को नशा छोड़ने और सात्विक जीवन अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
सांगलिया बगीची की वंशावली
- लक्कड़दास जी महाराज (संस्थापक)
- मंगलदास जी
- मीठाराम जी
- दूलादास जी
- रामदास जी
- मानदास जी
- लादूदास जी
- खींवादास जी
- भगतदास जी
- बंशीदासजी
- ओमदास जी (वर्तमान पीठाधीश्वर)
personalidade (व्यक्तित्व)
महंत श्री ओमदास जी महाराज अपने अत्यंत सरल स्वभाव, शांत वाणी और करुणामयी व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं। वे एक तपस्वी संत हैं, जिनका जीवन आडंबरों से कोसों दूर और पूरी तरह से लोक कल्याण के लिए समर्पित है। उनका दर्शन पाने मात्र से ही श्रद्धालुओं को गहरी आध्यात्मिक शांति की अनुभूति होती है।
written by: rititavraj shekhawat